राजनीति

जब राजीव गांधी ने बिना जान और जमीन गंवाए चीन को दी थी बड़ी शिकस्त, दंग रह गया था ड्रैगन

 नई दिल्ली
बात 1987 की है। अरुणाचल प्रदेश को अलग राज्य का दर्जा दिया जा चुका था। ये बात चीन को अखर रही थी। 1967 में हुए नाथू ला और चो ला विवाद के 20 साल बाद, चीन ने फिर से सीमा विवाद खड़ा करना शुरू कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि भारत की थल सेना और चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी सुमदोरोंग चू की घाटी में आमने-सामने आ खड़ी हुई। सुमदोरोंग चू  अरुणाचल प्रदेश के तवांग जिले में बहने वाली एक नदी है। यह  नमका चू और न्यामजांग चू के संगम स्थल से पूर्वोत्तर दिशा में बहती है।

चीन ने सीमा पर डेरा डालना शुरू किया:
इससे पहले 1986 में ही चीनी सेना ने  वास्तविक नियंत्रण रेखा को क्रॉस कर सुमदोरोंग चू घाटी में अपना डेरा डालना शुरू कर दिया था। चीन ने वहां सैन्य बसावट और हेलीपैड तक बना लिए थे। यानी चीन ने एक तरह से लड़ाई की तैयारी कर ली थी। तब भारतीय सेना के प्रमुख थे जनरल के सुंदरजी, जिन्हेंने जानकारी मिलते ही चीन के खिलाफ ऑपरेशन लॉन्च कर दिया था।

भारत ने सीमा पर तैनाती बढ़ाई:
उन्होंने वायु सेना की मदद से कई बटालियनों को एयरलिफ्ट कर भारत-चीन सीमा पर उनकी तैनाती कर दी थी। भारतीय सेना वहां चीनी सैनिकों के साथ सीमा पर तब तक खड़ी रही जब तक कि पीएलए पीछे हटने को तैयार नहीं हो गई। सीमा पर सेना डटकर मुकाबला करने को तैयार थी, उधर दिल्ली में कूटनीति के जरिए समस्या का समाधान तलाशा जा रहा था।

इंदिरा के बाद राजीव ने संभाली कूटनीति की कमान:
इधर, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बन चुके थे। वह पंडित जवाहर लाल नेहरू की तरह कूटनीति के जरिए इस विवाद को सुलझाना चाहते थे। राजीव गांधी ने चीन से बातचीत के जरिए इसे सुलझाना चाहा। उन्होंने बीजिंग को बातचीत का प्रस्ताव भेजा। मई 1987 में तत्कालीन विदेश मंत्री एनडी तिवारी को राजीव गांधी ने बातचीत के लिए चीन भेजा। तिवारी के दौरे से ही राजीव गांधी के चीन दौरे की भूमिका बनी। 

राजीव गांधी का चीन दौरा:
1988 में राजीव गांधी ने चीन का दौरा किया। पंडित नेहरू के बाद चीन जाने वाले वह दूसरे प्रधानमंत्री थे। उधर, राजीव बीजिंग में बातचीत कर रहे थे, इधर सुमदोरोंग चू घाटी में दोनों देशों की सेना आमने-सामने थी। बहरहाल, राजीव गांधी के चीन दौरे ने दोनों देशों के बीच के रिश्तों में आई कड़वाहट को कम कर दिया। दोनों देशों के बीच कई राउंड की बातचीत होने लगी।

बैकफुट पर आया चीन:
चीन भी समझ चुका था कि 1962 का भारत नहीं है। अब यह परमाणु हथियार से संपन्न और तेजी से विकसित हो रहा बड़ा देश है। चीन ने हालात को समझते हुए दिसंबर 1988 में सीमा पर चर्चा के लिए एक ज्वाइंट वर्किंग ग्रुप का गठन कर दिया। इस ग्रुप की लगातार बैठकें होती रहीं। इधर 1989 से 1991 तक कई चीनी नेताओं ने भारत का दौरा किया। दोनों देशों ने मामले को शांति से निपटाने की प्रतिबद्धता जताई और दोनों देशों की सेना घाटी से पीछे हटने को तैयार हो गई।

बिना किसी हानि के सुमदोरोंग चू पर कब्जा:
हालांकि, मई 1991 में लोकसभा चुनावों के दौरान राजीव गांधी की हत्या हो गई लेकिन उनकी कोशिशों से भारत ने बिना एक इंच जमीन और एक भी सैनिक की जान गंवाए सुमदोरोंग चू घाटी पर विजय हासिल कर लिया। अंततः 1993 में दोनों देशों के बीच एक समझौता हुआ, जहां दोनों देश एलएसी पर शांति सुनिश्चित करने के लिए सहमत हुए। दरअसल, भारत की कूटनीति और सीमा पर सैनिकों की तैयारी देखकर चीन घबरा गया था। तब से चीन ने 1962 जैसी भारतीय स्थिति का आंकलन करना छोड़ दिया। 
 

KhabarBhoomi Desk-1

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